पर्यावरण की समस्या : दुनिया आज जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ हवा मिट्टी पानी को लेकर चिंतित है। सोऑपी जैसे सम्मेलन से लेकर विभिन्न अंतरराष्ट्रीय बैठकों में पर्यावरण विमर्श का मुद्दा बन चुका है । इसका कारण
यह है कि कोई भी देश ऐसा नही है, जहां पर प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े संकट का सामना ना करना पड़ रहा हो। कहीं पानी का संकट है तो कहीं प्रदूषण का कहीं की मिट्टी जहरीली है तो कहीं वनों को नष्ट होने की चिंता है इसलिए हम सबके लिए जरूरी है कि कैसे उस विकास की ओर बढ़ा जाए जिसमें आर्थिक और प्रकृति कि दोनों पहलुओं का संतुलन हो ।
विकास और प्रकृति : यह तो स्वीकारना ही होगा कि एक तरह से विकास विनाशकारी भी बन चुका है, इसमें यह बात स्पष्ट दिखती है कि जबसे विकास आवश्यकताओं पर सीमित न रहकर विलासिता की ओर झुका उसने बड़े विनाश को जन्म दिया। अगर हम नहीं समझते है तो अगली सदी विनाश की होगी। कहीं पानी का संकट होगा तो कहीं शहर डूब रहे होंगे। वैज्ञानिकों के विश्लेषण आ चुके हैं जो कहते हैं कि मिलकर प्रयास हो जिससे पृथ्वी पर दबाव उसकी धारण क्षमता को पार न करें जोशीमठ धारण क्षमता से ज्यादा दबाव का ही उदाहरण है, यह शहर कभी गांव था जो धीरे-धीरे कस्बा फिर पहाड़ी शहर बना आज वहां हुआ अनियोजित और अनियंत्रित विकास ही विनाश का कारण बन रहा है ।
जोशी मठ में अनियंत्रित विकास : जोशीमठ की परिस्थितियां इस बात की दिशा दिखाती हैं कि हम प्रकृति से जुड़कर कैसे अपने विकास के ढांचे तैयार कर सकते हैं। विकास का सबसे बड़ा पहलू ढांचागत संरचना उसे जुड़ा है, चाहे वह उद्योग के लिए हो, सड़कों के लिए या बड़े बांधों को लेकर इन सब में हम अगर शुरुआत से ही प्रकृति और पर्यावरण को ध्यान में रखकर बढ़े तो शायद विनाश की स्थिति ना बने। उदाहरण के तौर पर पहाड़ों में सड़क बनाने की गति मैदानी इलाकों से कम रखी जाए, जिससे प्रकृति को संतुलन बनाने का मौका मिले, बड़े बांधों के विकल्प के रूप में हम छोटे छोटे बांध बना सकते हैं, जिससे स्थानीय भागीदारी भी रहे इसमें खतरा कम होगा यह समय प्राकृतिक व आर्थिक मैं समन्वय बनाकर चलने की है।
पर्यावरण और विकास को एक साथ कैसे लाए : पिछले कुछ समय से विमर्श का विषय है कि कैसे पर्यावरण और विकास को साथ लेकर पढ़ा जाए। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने भी यह बात उठाई है कि प्राकृतिक और आर्थिकी को साथ लेकर चलना चाहिए, यह तभी संभव होगा जब हम विकास के लक्ष्य के साथ इसकी प्रक्रिया पर भी ध्यान दें। हम इस बात पर ध्यान दें कि विकास की गतिविधियों में पर्यावरण एवं प्राकृतिक की अनदेखी ना होने पाए, यह स्थान विशेष की बात नहीं है बल्कि देश के हर कोने में विकास ऐसे ही मानकों पर होना चाहिए।
उद्योग का पर्यावरण पर प्रभाव : उद्योगों का यह दायित्व निर्धारित किया जाए कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पृथ्वी से जितना ले, उस कमी को पूरा करने में भी उतना ही योगदान दें। अगर हमारे उद्योग प्रकृति को ध्यान में रखेंगे तो विकास की ऐसी राह बनेगी जो प्रकृति के अनुकूल होगी। हमें समझना होगा कि पृथ्वी से हर हिस्से की अपनी धारण क्षमता है फिर चाहे वह पहाड़ हो, मैदान हो, या समुद्र तट हो, सीमाओं को समझना आज की चुनौती है इसे समझ कर ही संतुलित विकास की राह निकलेगी।
By Dr. Pramod Kumar Srivastava
Asst. Professor of Economics
Jagatpur PG College (Jagatpur) Varanasi
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